Wednesday, January 1, 2025

Unit I - Chapter 1.1 - योग की व्युत्पत्ति

योग का अर्थ

सामान्य भाव में योग का अर्थ हैं जुड़ना, जोड़ना या संयुक्त होना। अर्थात दो तत्वों का आपस में मिल जाना योग कहलाता हैं। ऋषि मुनियों ने आत्मा से परमात्मा के मिलने को ही जीवन का महत्वपूर्ण प्रयोजन माना हैं तथा योग की पूर्णता भी इसी में कही गई हैं कि संसार के मोह में उलझा मनुष्य अपनी आत्मा को जाने और कर्म करता हुआ परमात्मा से जुड़कर अपने आत्मस्वरूप में पुनः लौट जाए।

योग की व्युत्पत्ति

'योग' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु 'युज' से हुई है, जिसका अर्थ है 'जोड़ना', 'जुड़ना' या 'एकजुट होना'। युज धातु के बाद करण और भाव वाच्य में धज्य प्रत्यय लगाने से योग शब्द बना हैं। योगिक ग्रंथों के अनुसार योग के अभ्यास से व्यक्तिगत चेतना का सार्वभौमिक चेतना के साथ मिलन होता हैं, जो मन और शरीर, मनुष्य और प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य का संकेत देता हैं।

युज धातु के प्रकार

पाणिनीगण पाठ में युज् धातु का निम्न तीन प्रकार से प्रयोग हैं-

1. युज् समाधौ - दिवादिगणीय

2. युजिर योगे - रूधादिगणीय

3. युज् संयमने - चुरादिगणीय

1. युज् समाधौ - दिवादिगणीय

दिवादिगणीय में युज धातु का अर्थ समाधि होता हैं। युज् समाधौ का अर्थ हैं समाधि की सिद्धि के लिए जुड़ना या समाधि की प्राप्ति के लिए जो भी साधनायें शास्त्रों में बताई गयी हैं। उन साधनाओ को अपने जीवन में अपनाना ही योग कहा गया हैं। समाधि को महर्षि पतंजलि ने अपने अष्टांग योग में सबसे अंतिम अंग के रूप में वर्णित किया हैं। समाधि के बाद ही मोक्ष का द्वार खुलता हैं।

2. युजिर योगे - रूधादिगणीय

रुधादिगणीय युज धातु का अर्थ हैं। जुड़ना, मिलना, मेल करना। युजिर योगे का अर्थ है संयोग करना। अर्थात् इस दुःख रुप संसार से वियोग तथा ईश्वर से संयोग का नाम ही योग हैं। दुसरे शब्दों में कहा जाए तो जीवात्मा के मोह को छोड़ना और मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा के साथ संयोग करना योग हैं। जिसका वर्णन श्रीमदभगवद्गीता के 6/23 श्लोक में किया गया हैं।

3. युज् संयमने - चुरादिगणीय

चुरादिगणीय युज् धातु का अर्थ हैं संयमन् अर्थात मन का संयम। इस प्रकार युज् संयमने का अर्थ हैं मन का नियमन करना। मन को संयमित करने की विद्या योग हैं। इस प्रकार योग साधनाओं को अपनाते हुए मन को नियंत्रित कर, आत्मा को परमात्मा से मिलाना ही योग हैं। महर्षि पतंजलि ने भी अपने योग सूत्र में चित्त की वृतियों को रोकने अर्थात मन के विचारों को संयमित करने को योग कहा हैं।


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