Friday, January 17, 2025

Unit I - Chapter 6.2 - सूर्य नमस्कार

सूर्य नमस्कार का परिचय

सूर्य नमस्‍कार एक सरल योगाभ्यास हैं। जिसमें कुल 12 आसन शामिल रहते हैं। इन 12 आसनों को मंत्रों के साथ भी किया जाता हैं। सामूहिक सूर्य नमस्कार दिवस प्रतिवर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद की जयंति के उपलक्ष्य में मनाया जाता हैं। इनके बचपन का नाम नरेंद्र था। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो शहर में जाकर पहली बार धर्म संसद को संबोधित किया था।

पहली स्थिति - प्रणामासन ( मंत्र  - ॐ मित्राय नम: )

सूर्य नमस्कार के 12 आसन में यह पहला आसन हैं। इसमें सबसे पहले दोनों पैरों को आपस में मिलाकर सीधे खड़े हो जाते हैं। और अपने दोनों हाथों को आपस में नमस्कार मुद्रा की तरह मिलाते हुए अपनी छाती से लगा कर रखते हैं। इसी अवस्‍था में रुककर कुछ देर के लिए लंबी गहरी सांस लेना हैं और छोड़ना हैं।

दूसरी स्थिति - हस्‍तउत्तानासन ( मंत्र  - ॐ रवये नम: )

इस स्तिथि में अपने दोनों हाथों को सांस भरते हुए सामने से ऊपर उठा कर पीछे की ओर ले जाना हैं। इसी के साथ अपने शरीर को भी कमर से पीछे की ओर झुकाना हैं। ध्‍यान रखना है कि इस अवस्था में दोनों हाथ दोनों कानों से सटे रहें। अब कोशिश करें कि अपनी गर्दन को भी पीछे की तरफ झुका कर पीछे की ओर देखने का प्रयास करें।

तीसरी स्थिति - पादहस्‍तासन ( मंत्र  - ॐ सूर्याय नम: )

अब तीसरी स्थिति में आने के लिए अपने दोनों हाथों को पीछे से आगे की ओर लेकर आना हैं। साथ ही धीरे धीरे सांस भी छोड़ते रहना हैं। इसी तरह से अपने हाथों को अपने पैर के पंजों तक लेकर जाने का प्रयास करना हैं। ध्‍यान रखना हैं कि इस दौरान घुटने मुड़े हुए ना हों। अब अपने हाथों को अपने पंजों से मिलाने का प्रयास करना हैं।

चौथी स्थिति - अश्‍व संचालन आसन ( मंत्र  - ॐ भानवे नम: )

इस स्थिति में अब सबसे पहले अपने बाएं पैर को पीछे की ओर लेकर जाए और अपने दाएं पैर को आगे रखते हुए घुटने को छाती से लगाने का प्रयास करे। इसके बाद अपनी गर्दन पीछे की ओर ले जाए और कोशिश करें कि कुछ समय के लिए अपनी गर्दन को ऊपर की ओर ही रखें। इस तरह से पुरे शरीर में लचीलापन आ जाएगा।

पांचवीं स्थिति - दंडासन मंत्र  - ॐ खगाय नम: )

इस स्थिति में आने के लिए अब अपने शरीर में गहरी सांस भरें और अपने दाएं पैर को भी पीछे लेकर जाएं। इसके बाद अपने हाथों और पंजों के बल अपने शरीर को ऊपर उठाने का प्रयास करे। अब अपनी हथेलियों पर दबाव देकर कुछ समय तक इसी अवस्था में शरीर को ऊपर उठाए रखें। जिससे बाजुओं को मजबूती मिलेगी।

छटवीं स्थिति -अष्‍टांग नमस्कार आसन मंत्र  - ॐ पूष्णे नम: )

इस स्थिति में आने के लिए पेट के बल जमीन पर लेट जाना हैं। इसके बाद अपने दोनों घुटनें, दोनों कंधे, छाती और अपनी ठुड्डी को जमीन से लगाना हैं और अपने कुल्‍हों को ऊपर उठाना हैं। ध्‍यान यह रखना है कि इस स्थिति के दौरान आपके सिर्फ कुल्‍हे ही ऊपर उठने चाहिए। आगे का शरीर व बाकी का शरीर जमीन पर लगा रहना चाहिए।

सातवीं स्थिति - भुजंग आसन मंत्र  - ॐ हिरण्यगर्भाय नमः )

इस स्थिति में अपने कुल्‍हों को फिर से नीचे लाते हुए अपने हाथों के बल पर अपने शरीर के आगे के हिस्‍से को ऊपर उठाना हैं। इसे आप जितना उठा सकें उतनी ऊपर तक लेकर जाना हैं। इसमें आपकी कमर के ऊपर का हिस्‍सा ही ऊपर उठना चाहिए। बाकी का शरीर जमीन से लगा होना चाहिए। और आसमान की ओर देखने का प्रयास करे।

आठवीं स्थिति - पर्वत आसन मंत्र  - ॐ मरिचये नम: )

इस स्थिति के लिए आगे के भाग को नीचे लाए और अपने पैरों और हाथों को जमीन पर ही रखते हुए दोनों को दबाव देकर केवल अपने कूल्‍हों को ऊपर की तरफ ले जाना हैं। इस दौरान कोशिश करना चाहिए कि हमारा ध्यान अपनी नाभि की ओर हो। जितना अपने कूल्‍हों को ऊपर उठा सके उतना ही ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए।

नवीं स्थिति - अश्व संचालन आसन मंत्र  - ॐ आदित्याय नम: )

इस स्थिति में अपने दाएं पैर को पीछे रखे और बाएं पैर को आगे की ओर लेकर आए। बाएं पैर को आगे रखते हुए घुटने को छाती से लगाने का प्रयास करे। इसके बाद अपनी गर्दन पीछे की ओर ले जाए और कोशिश करें कि कुछ समय के लिए अपनी गर्दन को ऊपर की ओर ही रखें। यह स्थिति ठीक चौथी स्थिति के जैसी ही होगी।

दसवीं स्थिति - पाद हस्तासन ( मंत्र - ॐ सवित्रे नमः )

यह स्थिति तीसरी स्थिति जैसी ही हैं। इस स्थिति के लिए अब अपने बाएं पैर को भी आगे की ओर लेकर आए और घुटनों को बिलकुल सीधा रखते हुए दोनों हाथों से अपने पैरों के पंजों को पकड़ने का प्रयास करे। इसी स्थिति में कुछ देर रुके रहे और धीरे धीरे सांस भी छोड़ते जाएं । इस तरह से अपने हाथों को पंजों से मिलाने का प्रयास करे।

ग्यारहवीं स्थिति - हस्‍तउत्तानासन मंत्र - ॐ अर्काय नमः )

यह स्थिति दूसरी स्थिति जैसी ही हैं। इस स्थिति के लिए अपने हाथों को सामने से ऊपर की तरफ उठाते हुए पीछे की तरफ लेकर जाना होता हैं। साथ ही अपने शरीर को भी धीरे धीरे कमर से पीछे की ले जाए। शरीर को पीछे की तरफ ले जाते समय इस बात का ध्‍यान रखें कि आप कमर के ऊपर का हिस्‍सा ही पीछे की तरफ लेकर जाएं।

बारहवीं स्थिति - प्रणामासन मंत्र - ॐ भास्कराय नम: )

यह स्थिति प्रथम आसन के जैसी ही हैं। जो सबसे पहले किया गया था। पीछे से हाथों को पुनः सीने के पास में लेकर आ जाए और सीधे खड़े हो जाए । अब अपने हाथों को इस तरह से जोड़ना हैं जैसे हम लोग प्रार्थना के लिए खड़े होते हैं। इस अवस्था में रुके रहे और लगातार गहरी सांस अंदर और बाहर लेते रहे।

सूर्य नमस्‍कार के लाभ

सूर्य नमस्‍कार के लाभ निम्नलिखित हैं -
  • शरीर के विषैले तत्वों को बाहर करता हैं।
  • पाचन तंत्र को बेहतर करता हैं।
  • रीढ़ की हड्डी को मजबूत करता हैं।
  • चिंता और तनाव से मुक्ति दिलाता हैं।
  • चेहरे पर निखार लाकर सुंदर बनाता हैं।
  • शरीर में लचीलापन लाता हैं।
  • मासिक धर्म को नियमित करता हैं।
सूर्य नमस्कार की सावधानियां

सूर्य नमस्‍कार की सावधानियां निम्नलिखित हैं -
  • गर्भवती महिलाओं को नहीं करना चाहिए।
  • रक्‍तचाप की अधिकता होने पर नही करना चाहिए।
  • पीठ दर्द की समस्‍या होने पर नही करना चाहिए।
  • मासिक धर्म के समय नही करना चाहिए।
  • सूर्य नमस्कार में आसनों को सही क्रम से करें।
  • सूर्य नमस्कार में जल्दबाजी बिलकुल भी न करें।

Thursday, January 16, 2025

Unit I- Chapter 6.1 - यौगिक शिथलीकरण

 परिचय

जीवन शक्ति बढ़ाने में विश्राम का अत्यधिक महत्व हैं। विश्राम का सीधा सा अर्थ हैं काम के बाद में शरीर को आराम देना। विश्राम करने से शरीर की थकी हुई मांसपेशियों का तनाव कम होता हैं और जटिल मानवीय कोशिका भी स्वस्थ रहती हैं। इसी विश्राम को यौगिक भाषा में शिथलीकरण कहा जाता हैं। इससे शरीर की प्रत्येक कोशिकाए पुनः उर्जावान हो जाती हैं।

शिथलीकरण का अर्थ

शारीरिक विश्राम के साथ मानसिक विश्राम की स्थिति को यौगिक भाषा में शिथलीकरण कहा जाता हैं। जो कि योगाभ्यास करते समय की जाने वाली अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं। अर्थात शरीर एवं मन को एक साथ शिथिल करने की क्रिया को शिथिलीकरण कहते हैं। इस क्रिया के करने से योगाभ्यास के दौरान होने वाली थकावट को दूर किया जाता हैं। ताकि आगे भी वैसी ही उर्जा बनी रहे।

शिथलीकरण का महत्व

शिथलीकरण की क्रिया योग अभ्यास करने दौरान हमें शारीरिक विश्राम के साथ साथ मानसिक विश्राम भी प्रदान करती हैं और हमारे शरीर को आगे की योगाभ्यास करने के लिए पुनः तैयार करती हैं। जो कि लगातार योगाभ्यास करने के कारण थक गया होता हैं या उसकी मांसपेशियों में आगे का कार्य करने की उर्जा न बची हो। शिथलीकरण की क्रिया संपूर्ण शरीर को एक नई उर्जा प्रदान करती हैं।

शिथलीकरण के प्रकार

यौगिक शिथलीकरण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते है-

  • दण्डासन - बैठकर या खड़े होकर करने वाले आसन के लिए
  • मकरासन - पेट के बल लेटकर किए जाने वाले आसन के लिए
  • शवासन - पीठ के बल लेटकर किए जाने वाले आसन के लिए
दण्डासन की विधि

यह विश्रामदायक आसन की श्रेणी में आता हैं। इसे खड़े होकर और बैठकर किये जाने वाले आसनों मध्य आराम करने के लिए किया जाता हैं। यह बैठकर करे तो दोनों पैर में 1 से डेढ़ फीट का अंतर दोनों हथेलियां पीछे और सिर को पीछे की ओर रखते हुए धीरे धीरे लंबी और गहरी साँस ले यही आसन जब खड़े होकर करे तो दोनों हाथ पीछे और एक हाथ से दुसरे की कलाई पकड़ कर साँस लेना हैं।

मकरासन की विधि

समतल, आरामदायक और स्वच्छ स्थल पर चटाई बिछाकर पेट के बल लेट जाएं। फिर अपने कंधे और चेहरे को थोड़ा ऊपर उठाएं और अपनी कोहनियों को मोड़ते हुए दोनों बाजुओं पर विपरीत हथेलियां रखे। अब अपना चेहरा अपनी हथेलियों के बीच आराम से रख दे। अपने पैरों को सीधा और आपस में मिलाकर रखें। धीरे-धीरे सांस छोड़ना और अंदर लेना शुरू करें।

शवासन की विधि

समतल भूमि पर एक चटाई बिछाकर पीठ के बल लेट जाएँ दोनों हाथ अगल-बगल शरीर से हटाकर रखें। हथेलियाँ आसमान की ओर रहें, दोनों पैर सीधे रहें, एडियों में डेढ़-दो फीट का फासला रहे और पंजे खुले रहें। अब अपने नेत्र, होंठ कोमलता से बंद करके समस्त शरीर को ढीला छोड़ दें। धीरे-धीरे श्वास लें और छोड़े। और कोई भी विचार न करे।

शिथलीकरण के लाभ

यौगिक शिथलीकरण के अभ्यास से निम्न लाभ मिलते हैं-
  • मस्तिष्क शांत और तनाव से मुक्त रहता हैं।
  • अवसाद से राहत पाने में मदद करता हैं।
  • सिरदर्द, थकान और अनिद्रा को दूर करता हैं।
  • रक्तचाप कम करने में भी मदद करता हैं।
  • एकाग्रता और याददाश्त में सुधार लाता हैं।
  • शरीर को पुनः उर्जावान बनाने में मदद करता हैं।

Wednesday, January 15, 2025

Unit I- Chapter 5 - षट् कर्म : अर्थ, उद्देश्य और महत्व

परिचय

महर्षि घेरण्ड ने षटकर्मों को अपनी रचना घेरण्ड संहिता में योग के पहले अंग के रूप में वर्णित किया हैं। उनका मानना हैं कि बिना षट् कर्म के कोई भी साधक योग मार्ग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। सबसे पहले शरीर की शुद्धि आवश्यक हैं। बिना शरीर की शुद्धि किए योग के अन्य अंगों के अभ्यास में कठिनाई होती हैं। इसलिए सबसे पहले षट् कर्म को महत्वपूर्ण माना गया हैं।

षट् कर्म का अर्थ

षट् कर्म शब्द की उत्पत्ति षट् और कर्म इन दो शब्दों के मिलने से हुई हैं। इनमें षट् का अर्थ है छः (6) और कर्म का अर्थ है कार्य। इस प्रकार षट् कर्म का अर्थ हुआ ‘छः कार्य’। यहाँ पर षट् कर्म का अर्थ ऐसे छः विशेष कर्मों से है जिनके द्वारा शरीर की शुद्धि की जाती हैं। हठयोग में इन छः प्रकार के शुद्धि कर्मों को षट् कर्म कहा गया हैं। षट् कर्म के माध्यम से शरीर की आंतरिक शुद्धि की जाती हैं।

षट् कर्म का उद्देश्य

  • त्रिदोषों ( वात, पित्त और कफ ) को संतुलित करना।
  • शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाना।
  • इड़ा व पिंगला नाड़ी को संतुलित करना।
  • शरीर से अनावश्यक मलों का निष्कासन करना।
  • शरीर की आन्तरिक शुद्धि करना।
  • शरीर के आन्तरिक संस्थानों को स्वस्थ बनाना।

षट् कर्म का महत्व

षट् कर्म का मुख्य उद्देश्य शरीर की शुद्धि करना हैं। क्योंकि मानव शरीर जितना बाहर से स्वस्थ होना चाहिए। उससे कहीं अधिक अंदर से भी सफाई जरुरी होती हैं। जिस प्रकार हम शरीर को बाहर से पानी के द्वारा साफ़ करते हैं।ठीक वैसे ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए शरीर की अंदर से भी सफाई बहुत जरुरी होती हैं। षट् कर्म शरीर के आंतरिक अंगों की शुद्धिकरण करने की एक तकनीक हैं।

घेरण्ड संहिता के षट् कर्म 

षट् कर्म मुख्य रूप से छः प्रकार के होते हैं –

  • धौति
  • बस्ति
  • नेति
  • नौलि
  • त्राटक
  • कपालभाति 

1.धौति :-

धौति हठ योग के षट् कर्म का एक प्रमुख घटक हैं। जिसमें धौति के अलग अलग प्रकार का वर्णन मिलता हैं। षट् कर्म के अंतर्गत वस्त्र धौति और वमन धौति महत्वपूर्ण क्रिया हैं। जिनका उपयोग संपूर्ण आहार नाल की अशुद्धियों को साफ करने के लिए किया जाता हैं।

धौति के मुख्य चार भाग माने गए हैं। 

I. अन्तर्धौति II. दन्त धौति III. हृद्धधौति IV. मूलशोधन

धौति के प्रकार

I. अन्तर्धौति के प्रकार :-

A. वातसार धौति B. वारिसार धौति  C. वह्निसार / अग्निसार धौति D. बहिष्कृत धौति ।

II. दन्तधौति के प्रकार :-

A. दन्तमूल धौति B. जिह्वाशोधन धौति  C. कर्णरन्ध्र धौति D. कपालरन्ध्र धौति ।

III. हृद्धधौति के प्रकार :-

A. दण्ड धौति B. वमन धौति C. वस्त्र धौति ।

IV. मूलशोधन :- मूलशोधन का कोई भाग नहीं हैं

वस्त्र धौति -

वस्त्र धौति षट् कर्म की ऐसी क्रिया का नाम हैं। जिसमे वस्त्र यानी कि कपड़े के द्वारा पेट और भोजन नली को साफ किया जाता हैं। वस्त्र धौति बेहद लाभकारी शोधन योग क्रियाओं में से हैं। जो हमारे पेट और आहार नली को साफ कर शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती हैं।

वस्त्र धौति की विधि -

इस क्रिया को करने के लिये 4 अंगुल चौड़े और 15 हाथ लंबे सूती कपड़े को नमक वाले पानी में रखकर मुख मार्ग से धीरे-धीरे अन्दर निगला जाता हैं और पुनः मुंह से ही उसे बाहर निकाला जाता हैं। इस कपड़े को इस्तेमाल करने से पहले गर्म पानी से धोकर अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिये। कपड़े के एक छोर को मुख में डालकर धीरे-धीरे चबाकर पेट में उतार ले। इसका अभ्यास धीरे-धीरे करना चाहिये और धीरे -धीरे इसे बढ़ाते जायें।

लाभ- धौति क्रिया से पेट का सारा कफ निकल जाता हैं। खांसी, दमा, कफ, सांस, आदि रोग ठीक होते हैं। शरीर स्वस्थ और बलवान होता हैं। पेट सम्बन्धी रोगों में लाभ होता हैं। पाचन समस्या ठीक होकर भूख बढती हैं।

सावधानी- इस क्रिया को खाली पेट करें। धीरे-धीरे अभ्यास करके धौति को पेट में आगे बढ़ायें। धौति को मुख से जोर लगाकर नहीं बल्कि श्वास को बाहर निकालते हुए निकालें।

वमन धौति -

वमन का अर्थ है उलटी करना। इस क्रिया से पेट की सफाई होती हैं। इससे आमाशय शुद्ध होता हैं। इसमें गुनगुना पानी को पीकर वमन करना होता हैं। इसे गजकरणी या कुंजल क्रिया भी कहते हैं। जिस प्रकार हाथी सूंड द्वारा पानी पीकर उसे मुँह में रखकर तुरंत बाहर फ़ेंक देता हैं। उसी प्रकार इस क्रिया को भी करना पड़ता हैं।वमन क्रिया करने से जमा कफ बाहर आकर व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ मिलता हैं।

वमन धौति की विधि -

इसके लिये 2-3 लीटर पानी को गुनगुना गर्म करें। फिर गिलास भरकर गटागट पानी पीते जाइये। पानी को कंठ तक भर लें और सामने की ओर झुके। दाये हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों को कंठ में डालिये। दोनों अंगुलियों के अग्र भाग से कंठ में स्थित जिह्ना को थोड़ी दबायें। वमन आने लगेगी। पानी को मुंह से बाहर कर उल्टी करते जायें। कुछ पानी रह भी जाये तो चिंता की बात नहीं।

लाभ- वमन धौति करने से पित्त और वायु विकार दूर होता हैं। खट्टी डकार, छाती की जलन, पेट की जलन, गैस बनना और पेट के अन्य रोग दूर हो जाता हैं। इससे श्वास नली, नाक, कान, आंख, पेट तथा आंतों की सफाई एवं मानसिक बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं।

सावधानी- इस क्रिया को खाली पेट ही करें। हृदय के रोगी वमन धौति न करें। कंठ मे अंगुली डालने से पूर्व देख लें कि नाखून कटे हुए व साफ हो।

2. बस्ति क्रिया :-

बस्ति क्रिया को षट् कर्म का दूसरा अंग माना हैं। इस क्रिया में गुदा प्रदेश द्वारा बड़ी आँत की शुद्धि करते हैं। इस क्रिया में गुदामार्ग से जल खींचकर कुछ देर अन्दर रखकर गुदामार्ग से जल बाहर निकाल देने को बस्ति क्रिया कहते हैं। इस क्रिया से मल और मलद्वार साफ किया जाता हैं।

बस्ति के दो प्रकार माने गए हैं - 1. जलबस्ति 2. स्थलबस्ति ।

बस्ति क्रिया की विधि-

हलके गर्म पानी में नींबू निचोड़कर उसे छानकर एनिमा के बर्तन में डाले। अब इसे ऊचे स्थान पर रख दें। बायीं करवट लेट जायें। नोजल को गुदा में डालें और टोंटी को खोल दें। पानी गुदा में जाना आरम्भ हो जायेगा। लम्बे-लम्बे श्वास खींचें। सारा पानी अन्दर जाने के बाद नोजल को गुदा से निकाल दें। तत्पश्चात पेट को हिलायें। फिर शौच जाएं और पेट के पानी को गुदामार्ग द्वारा धीरे-धीरे बाहर निकालें।

लाभ- इससे बड़ी आंत की सफाई होकर पेट स्वच्छ और मुलायम हो जाता हैं। बवासीर तथा आंत बाहर आने की बीमारियां दूर हो जाती हैं। इस क्रिया से पेट की बडी आंत में जमा मल, श्लेष्मा और आंव निकल जाते हैं। आंत साफ हो जाती है। गैस की शिकायत ठीक होती हैं।

सावधानी- कब्ज होने की दशा में दो सप्ताह में दो-तीन बार यह क्रिया की जा सकती हैं। बस्ति क्रिया करने के पश्चात विश्राम कर एक घण्टे बाद ही कुछ खाये पिये।

3. नेति क्रिया :-

नेति हठयोग के षटकर्म में वर्णित एक महत्वपूर्ण शुद्धि क्रिया हैं। नेति मुख्यत: सिर के अन्दर वायु-मार्ग को साफ करने की क्रिया हैं।

नेति क्रिया के दो प्रकार हैं- 1. जल नेति 2. रबड़ या सूत्र नेति

जलनेति में जल का प्रयोग किया जाता है जबकि सूत्रनेति में धागा या रबर नली प्रयोग में लाया जाता हैं।

जल नेति की विधि-

एक टोंटीदार लोटे में गुनगुना पानी लेकर उसमे थोड़ा सा नमक मिलायें फिर सिर को थोड़ा पीछे की ओर झुकाकर जिस नासाछिद्र से श्वास चल रही हो उसमें जल नेति पात्र की टोंटी लगाकर इससे निकलने वाले पानी को बिना झिझक के थोड़ा-सा नाक के अन्दर खींचें और मुख को खोल कर सांस ले और दूसरी नासिका छिद्र द्वारा पानी बाहर निकाल दें। इसी क्रिया को दूसरी नासिका से भी करें। अंत में कपाल भाति द्वारा नासा मार्ग को साफ करें।

लाभ- इस क्रिया से नाक की दीवारों पर चिपकी हुई गंदगी हट जायेगी व बाहर निकल जायेगी। इस क्रिया से सर्दी, खांसी, छींक, नाक, आंख, कान के समस्त रोगों से लाभ मिलता हैं। मस्तिष्क सक्रिय होकर विकसित होता हैं।

सावधानी- जलनेति का अभ्यास किसी कुशल योग प्रशिक्षक की निगरानी में ही करें। पानी का तापमान और नमक का अनुपात सही रखे और अत्यधिक सर्दी की दशा में न करे। क्रिया के समय केवल मुंह से ही साँस ले।

सूत्र नेति या रबर नेति की विधि-

इसके लिये एक रबड़ नली (क्रिया वाली) ले इसे एक नासा छिद्र में डाल कर कंठ तक ले जाए फिर तर्जनी और मध्यमा अंगुली को कंठ में डालकर अंगुलियों से इसे पकड़ लें। नाक के सिरे वाले हिस्से को धीरे-धीरे सरकाते हुए अंगुलियों से पकड़ें। सिरे को मुंह-मार्ग से बाहर लाए। जब अभ्यास अच्छा हो जाये तो दोनों सिरों को धीरे-धीरे आगे-पीछे घर्षण दें। फिर रबड़ को धीरे-धीरे मुंह से बाहर निकाल ले। यह क्रिया दूसरे नासा छिद्र से भी करें।

लाभ- सूत्र नेति/रबर नेति करने से नाक के सभी रोग दूर होते हैं। साइनस रोग ठीक हो जाता हैं। मस्तिष्क, कपाल शुद्ध होता हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती हैं। जुकाम ठीक होता हैं। गले से ऊपर भाग में होने वाले रोगों में लाभ होता हैं।

सावधानी- सूत्र नेति अथवा रबर नेति मन से तैयार होकर करनी चाहिये। अभ्यास में जल्दी न करें। नाक से सूत्र या रबर नली को नाक अन्दर ले जाने में कई दिन का अभ्यास लग सकता हैं। नासिका में कोई घाव होने पर न करे।

4. नौलि क्रिया :-

नौलि (लौलिकी) षटकर्मो में शुद्धिकरण की चौथी प्रक्रिया हैं। नौलि क्रिया अग्निसार का ही एक प्रकार हैं या यूँ कहे कि नौलि क्रिया अग्निसार अन्त: धौति का एक उच्च अभ्यास है। जठराग्नि को बढ़ाने वाली इस क्रिया में उदर की मॉसपेशियों की मालिश होती हैं साथ ही पेट की समस्त मांसपेशियों की क्रियाशीलता त्वरित गति से बढ़ती हैं।

नौलि क्रिया की विधि-

नौलि क्रिया के लिए पैर के पंजो को डेढ़ फिट की दूरी रखे। हाथ घुटनों पर रखें। पूरी साँस को झटके से बाहर निकाले। अब पेट की समस्त नसों को बायीं ओर धकेल दे। फिर यही क्रिया दायीं ओर करें। एक बार की निकाली हुई श्वास में पेट को दायीं से बायीं ओर ल जाने की क्रिया बारम्बार दोहरायें। दायीं-बायीं नौलियों का अभ्यास हो जाने के बाद मध्य नौलि का अभ्यास करें।

लाभ- नौलि क्रिया से पेट की भली-भांति मालिश तथा व्यायाम हो जाता हैं। यकृत, वृक्क आदि निरोगी होते हैं। अजीर्ण एवं कोष्ठ बद्धता की शिकायत दूर हो जाती हैं। पेट का भारीपन और मोटापा दूर हो जाता हैं।

सावधानी- नौलि का अभ्यास खाली पेट और धैर्य रखकर करें। बच्चो को इसका अभ्यास न करके व्यस्क उम्र में करना चाहिए। अल्सर के रोगी,आंतों में सूजन, हर्निया उच्च रक्तचाप को यह अभ्यास नहीं करना चाहिये।

5. त्राटक :-

त्राटक क्रिया ध्यान से सम्बन्धित हैं। एक स्थान पर बैठकर बिना हिले-डुले, एकटक दृष्टि से किसी वस्तु या चिन्ह को निरन्तर देखते रहना त्राटक क्रिया कहलाती हैं।

त्राटक साधना के तीन प्रकार होते हैं -

  • अंतः त्राटक
  • मध्य त्राटक
  • बाह्य त्राटक
त्राटक की विधि-

इस क्रिया के लिए दीपक या मोमबत्ती लेकर सामने किसी ऊँचे स्थल पर आँखों की ऊंचाई के बराबर रखे। मोमबत्ती की लौ हिलनी नहीं चाहिए। मोमबत्ती या दीपक को अपने से केवल 60 सेमी. या दो फिट तक रखे। अब दृष्टि या ध्यान लौ पर लगाये। बिना पलक झपकाये उस समय तक देखते रहें जब तक कि आंखों में पानी न आ जाये। धीरे-धीरे समय बढ़ायें। अंत में आंखों को बंद करके आन्तरिक दृष्टि से कुछ क्षण लौ को देखें।

लाभ- त्राटक के अभ्यास से आंखों के रोग दूर होकर शक्ति तीव्र होती हैं। मन शान्त होता हैं। इच्छाशक्ति तीव्र होती है तथा शक्ति सुव्यवस्थित बनी रहती हैं।

सावधानी- त्राटक की क्रिया तब तक ही करें जब तक कि आँखों में जलन न होने लगे। प्रारम्भ में इसे एक चक्र तक ही करें और बाद में इसे बढ़ाते जाये। आंखों में जलन होने, पानी आने पर त्राटक रोक दें। त्राटक के लिए सरसों के तेल या घी का दीपक जलायें।

6. कपालभाति :-

कपाल का अर्थ हैं मस्तिष्क और भाति का अर्थ हैं चमकाना या शुद्ध करना अर्थात मस्तिष्क को शुद्ध करने की क्रिया को कपालभाति कहते हैं। इस अभ्यास से मस्तिष्क की शुद्धि होती हैं। कपालभाति तथा प्राणायामों में थोड़ा अंतर हैं। कपाल भाति में केवल रेचक को जोर लगाकर किया जाता है जबकि प्राणायामों में पूरक ओर रेचक दोनों क्रियाओं पर जोर लगाना पड़ता हैं।

कपालभाति की विधि-

कपालभाति के लिये ध्यानात्मक आसन में बैठें। जल्दी-जल्दी श्वास छोड़ें श्वास लेने की प्रक्रिया स्वतः ही हो जाएगी। श्वास छोड़ने की क्रिया का निरन्तर निरीक्षण करते रहें। पूरक की अपेक्षा रेचक में अधिक समय लगायें। रेचक इतनी शीघ्रता से किये जायें कि उनकी संख्या बढ़ती हुई एक मिनट में 120 तक जा पहुंचे। पूरक तथा रेचक के समय केवल उदर पेशियों में ही हरकत हो तथा वक्ष स्थल की पेशियां संकुचित बनी रहें।

लाभ- कपालभाति से कपाल की नस और नाड़ियों की शुद्धि होती हैं। इससे पेट की पेशियों तथा उनसे सम्बन्धित अंगों की मालिश हो जाती हैं। इसका नियमित अभ्यास करने से कपाल चमकने लगता हैं।

सावधानी- कपालभाति में रेचक करते समय पेट को झटके के साथ अन्दर ले जायें। इस क्रिया को आरम्भ में एक मिनट में 30 बार तेज गति से रेचक और तेज गति से पेट अन्दर करें। धीरे-धीरे अभ्यास को बढाएं।





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