परिचय
महर्षि घेरण्ड ने षटकर्मों को अपनी रचना घेरण्ड संहिता में योग के पहले अंग के रूप में वर्णित किया हैं। उनका मानना हैं कि बिना षट् कर्म के कोई भी साधक योग मार्ग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। सबसे पहले शरीर की शुद्धि आवश्यक हैं। बिना शरीर की शुद्धि किए योग के अन्य अंगों के अभ्यास में कठिनाई होती हैं। इसलिए सबसे पहले षट् कर्म को महत्वपूर्ण माना गया हैं।
षट् कर्म का अर्थ
षट् कर्म शब्द की उत्पत्ति षट् और कर्म इन दो शब्दों के मिलने से हुई हैं। इनमें षट् का अर्थ है छः (6) और कर्म का अर्थ है कार्य। इस प्रकार षट् कर्म का अर्थ हुआ ‘छः कार्य’। यहाँ पर षट् कर्म का अर्थ ऐसे छः विशेष कर्मों से है जिनके द्वारा शरीर की शुद्धि की जाती हैं। हठयोग में इन छः प्रकार के शुद्धि कर्मों को षट् कर्म कहा गया हैं। षट् कर्म के माध्यम से शरीर की आंतरिक शुद्धि की जाती हैं।
षट् कर्म का उद्देश्य
- त्रिदोषों ( वात, पित्त और कफ ) को संतुलित करना।
- शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाना।
- इड़ा व पिंगला नाड़ी को संतुलित करना।
- शरीर से अनावश्यक मलों का निष्कासन करना।
- शरीर की आन्तरिक शुद्धि करना।
- शरीर के आन्तरिक संस्थानों को स्वस्थ बनाना।
षट् कर्म का महत्व
षट् कर्म का मुख्य उद्देश्य शरीर की शुद्धि करना हैं। क्योंकि मानव शरीर जितना बाहर से स्वस्थ होना चाहिए। उससे कहीं अधिक अंदर से भी सफाई जरुरी होती हैं। जिस प्रकार हम शरीर को बाहर से पानी के द्वारा साफ़ करते हैं।ठीक वैसे ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए शरीर की अंदर से भी सफाई बहुत जरुरी होती हैं। षट् कर्म शरीर के आंतरिक अंगों की शुद्धिकरण करने की एक तकनीक हैं।
घेरण्ड संहिता के षट् कर्म
षट् कर्म मुख्य रूप से छः प्रकार के होते हैं –
- धौति
- बस्ति
- नेति
- नौलि
- त्राटक
- कपालभाति
1.धौति :-
धौति हठ योग के षट् कर्म का एक प्रमुख घटक हैं। जिसमें धौति के अलग अलग प्रकार का वर्णन मिलता हैं। षट् कर्म के अंतर्गत वस्त्र धौति और वमन धौति महत्वपूर्ण क्रिया हैं। जिनका उपयोग संपूर्ण आहार नाल की अशुद्धियों को साफ करने के लिए किया जाता हैं।
धौति के मुख्य चार भाग माने गए हैं।
I. अन्तर्धौति II. दन्त धौति III. हृद्धधौति IV. मूलशोधन
धौति के प्रकार
I. अन्तर्धौति के प्रकार :-
A. वातसार धौति B. वारिसार धौति C. वह्निसार / अग्निसार धौति D. बहिष्कृत धौति ।
II. दन्तधौति के प्रकार :-
A. दन्तमूल धौति B. जिह्वाशोधन धौति C. कर्णरन्ध्र धौति D. कपालरन्ध्र धौति ।
III. हृद्धधौति के प्रकार :-
A. दण्ड धौति B. वमन धौति C. वस्त्र धौति ।
IV. मूलशोधन :- मूलशोधन का कोई भाग नहीं हैं
वस्त्र धौति -
वस्त्र धौति षट् कर्म की ऐसी क्रिया का नाम हैं। जिसमे वस्त्र यानी कि कपड़े के द्वारा पेट और भोजन नली को साफ किया जाता हैं। वस्त्र धौति बेहद लाभकारी शोधन योग क्रियाओं में से हैं। जो हमारे पेट और आहार नली को साफ कर शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती हैं।
वस्त्र धौति की विधि -
इस क्रिया को करने के लिये 4 अंगुल चौड़े और 15 हाथ लंबे सूती कपड़े को नमक वाले पानी में रखकर मुख मार्ग से धीरे-धीरे अन्दर निगला जाता हैं और पुनः मुंह से ही उसे बाहर निकाला जाता हैं। इस कपड़े को इस्तेमाल करने से पहले गर्म पानी से धोकर अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिये। कपड़े के एक छोर को मुख में डालकर धीरे-धीरे चबाकर पेट में उतार ले। इसका अभ्यास धीरे-धीरे करना चाहिये और धीरे -धीरे इसे बढ़ाते जायें।
लाभ- धौति क्रिया से पेट का सारा कफ निकल जाता हैं। खांसी, दमा, कफ, सांस, आदि रोग ठीक होते हैं। शरीर स्वस्थ और बलवान होता हैं। पेट सम्बन्धी रोगों में लाभ होता हैं। पाचन समस्या ठीक होकर भूख बढती हैं।
सावधानी- इस क्रिया को खाली पेट करें। धीरे-धीरे अभ्यास करके धौति को पेट में आगे बढ़ायें। धौति को मुख से जोर लगाकर नहीं बल्कि श्वास को बाहर निकालते हुए निकालें।
वमन धौति -
वमन का अर्थ है उलटी करना। इस क्रिया से पेट की सफाई होती हैं। इससे आमाशय शुद्ध होता हैं। इसमें गुनगुना पानी को पीकर वमन करना होता हैं। इसे गजकरणी या कुंजल क्रिया भी कहते हैं। जिस प्रकार हाथी सूंड द्वारा पानी पीकर उसे मुँह में रखकर तुरंत बाहर फ़ेंक देता हैं। उसी प्रकार इस क्रिया को भी करना पड़ता हैं।वमन क्रिया करने से जमा कफ बाहर आकर व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ मिलता हैं।
वमन धौति की विधि -
इसके लिये 2-3 लीटर पानी को गुनगुना गर्म करें। फिर गिलास भरकर गटागट पानी पीते जाइये। पानी को कंठ तक भर लें और सामने की ओर झुके। दाये हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों को कंठ में डालिये। दोनों अंगुलियों के अग्र भाग से कंठ में स्थित जिह्ना को थोड़ी दबायें। वमन आने लगेगी। पानी को मुंह से बाहर कर उल्टी करते जायें। कुछ पानी रह भी जाये तो चिंता की बात नहीं।
लाभ- वमन धौति करने से पित्त और वायु विकार दूर होता हैं। खट्टी डकार, छाती की जलन, पेट की जलन, गैस बनना और पेट के अन्य रोग दूर हो जाता हैं। इससे श्वास नली, नाक, कान, आंख, पेट तथा आंतों की सफाई एवं मानसिक बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं।
सावधानी- इस क्रिया को खाली पेट ही करें। हृदय के रोगी वमन धौति न करें। कंठ मे अंगुली डालने से पूर्व देख लें कि नाखून कटे हुए व साफ हो।
2. बस्ति क्रिया :-
बस्ति क्रिया को षट् कर्म का दूसरा अंग माना हैं। इस क्रिया में गुदा प्रदेश द्वारा बड़ी आँत की शुद्धि करते हैं। इस क्रिया में गुदामार्ग से जल खींचकर कुछ देर अन्दर रखकर गुदामार्ग से जल बाहर निकाल देने को बस्ति क्रिया कहते हैं। इस क्रिया से मल और मलद्वार साफ किया जाता हैं।
बस्ति के दो प्रकार माने गए हैं - 1. जलबस्ति 2. स्थलबस्ति ।
बस्ति क्रिया की विधि-
हलके गर्म पानी में नींबू निचोड़कर उसे छानकर एनिमा के बर्तन में डाले। अब इसे ऊचे स्थान पर रख दें। बायीं करवट लेट जायें। नोजल को गुदा में डालें और टोंटी को खोल दें। पानी गुदा में जाना आरम्भ हो जायेगा। लम्बे-लम्बे श्वास खींचें। सारा पानी अन्दर जाने के बाद नोजल को गुदा से निकाल दें। तत्पश्चात पेट को हिलायें। फिर शौच जाएं और पेट के पानी को गुदामार्ग द्वारा धीरे-धीरे बाहर निकालें।
लाभ- इससे बड़ी आंत की सफाई होकर पेट स्वच्छ और मुलायम हो जाता हैं। बवासीर तथा आंत बाहर आने की बीमारियां दूर हो जाती हैं। इस क्रिया से पेट की बडी आंत में जमा मल, श्लेष्मा और आंव निकल जाते हैं। आंत साफ हो जाती है। गैस की शिकायत ठीक होती हैं।
सावधानी- कब्ज होने की दशा में दो सप्ताह में दो-तीन बार यह क्रिया की जा सकती हैं। बस्ति क्रिया करने के पश्चात विश्राम कर एक घण्टे बाद ही कुछ खाये पिये।
3. नेति क्रिया :-
नेति हठयोग के षटकर्म में वर्णित एक महत्वपूर्ण शुद्धि क्रिया हैं। नेति मुख्यत: सिर के अन्दर वायु-मार्ग को साफ करने की क्रिया हैं।
नेति क्रिया के दो प्रकार हैं- 1. जल नेति 2. रबड़ या सूत्र नेति
जलनेति में जल का प्रयोग किया जाता है जबकि सूत्रनेति में धागा या रबर नली प्रयोग में लाया जाता हैं।
जल नेति की विधि-
एक टोंटीदार लोटे में गुनगुना पानी लेकर उसमे थोड़ा सा नमक मिलायें फिर सिर को थोड़ा पीछे की ओर झुकाकर जिस नासाछिद्र से श्वास चल रही हो उसमें जल नेति पात्र की टोंटी लगाकर इससे निकलने वाले पानी को बिना झिझक के थोड़ा-सा नाक के अन्दर खींचें और मुख को खोल कर सांस ले और दूसरी नासिका छिद्र द्वारा पानी बाहर निकाल दें। इसी क्रिया को दूसरी नासिका से भी करें। अंत में कपाल भाति द्वारा नासा मार्ग को साफ करें।
लाभ- इस क्रिया से नाक की दीवारों पर चिपकी हुई गंदगी हट जायेगी व बाहर निकल जायेगी। इस क्रिया से सर्दी, खांसी, छींक, नाक, आंख, कान के समस्त रोगों से लाभ मिलता हैं। मस्तिष्क सक्रिय होकर विकसित होता हैं।
सावधानी- जलनेति का अभ्यास किसी कुशल योग प्रशिक्षक की निगरानी में ही करें। पानी का तापमान और नमक का अनुपात सही रखे और अत्यधिक सर्दी की दशा में न करे। क्रिया के समय केवल मुंह से ही साँस ले।
सूत्र नेति या रबर नेति की विधि-
इसके लिये एक रबड़ नली (क्रिया वाली) ले इसे एक नासा छिद्र में डाल कर कंठ तक ले जाए फिर तर्जनी और मध्यमा अंगुली को कंठ में डालकर अंगुलियों से इसे पकड़ लें। नाक के सिरे वाले हिस्से को धीरे-धीरे सरकाते हुए अंगुलियों से पकड़ें। सिरे को मुंह-मार्ग से बाहर लाए। जब अभ्यास अच्छा हो जाये तो दोनों सिरों को धीरे-धीरे आगे-पीछे घर्षण दें। फिर रबड़ को धीरे-धीरे मुंह से बाहर निकाल ले। यह क्रिया दूसरे नासा छिद्र से भी करें।
लाभ- सूत्र नेति/रबर नेति करने से नाक के सभी रोग दूर होते हैं। साइनस रोग ठीक हो जाता हैं। मस्तिष्क, कपाल शुद्ध होता हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती हैं। जुकाम ठीक होता हैं। गले से ऊपर भाग में होने वाले रोगों में लाभ होता हैं।
सावधानी- सूत्र नेति अथवा रबर नेति मन से तैयार होकर करनी चाहिये। अभ्यास में जल्दी न करें। नाक से सूत्र या रबर नली को नाक अन्दर ले जाने में कई दिन का अभ्यास लग सकता हैं। नासिका में कोई घाव होने पर न करे।
4. नौलि क्रिया :-
नौलि (लौलिकी) षटकर्मो में शुद्धिकरण की चौथी प्रक्रिया हैं। नौलि क्रिया अग्निसार का ही एक प्रकार हैं या यूँ कहे कि नौलि क्रिया अग्निसार अन्त: धौति का एक उच्च अभ्यास है। जठराग्नि को बढ़ाने वाली इस क्रिया में उदर की मॉसपेशियों की मालिश होती हैं साथ ही पेट की समस्त मांसपेशियों की क्रियाशीलता त्वरित गति से बढ़ती हैं।
नौलि क्रिया की विधि-
नौलि क्रिया के लिए पैर के पंजो को डेढ़ फिट की दूरी रखे। हाथ घुटनों पर रखें। पूरी साँस को झटके से बाहर निकाले। अब पेट की समस्त नसों को बायीं ओर धकेल दे। फिर यही क्रिया दायीं ओर करें। एक बार की निकाली हुई श्वास में पेट को दायीं से बायीं ओर ल जाने की क्रिया बारम्बार दोहरायें। दायीं-बायीं नौलियों का अभ्यास हो जाने के बाद मध्य नौलि का अभ्यास करें।
लाभ- नौलि क्रिया से पेट की भली-भांति मालिश तथा व्यायाम हो जाता हैं। यकृत, वृक्क आदि निरोगी होते हैं। अजीर्ण एवं कोष्ठ बद्धता की शिकायत दूर हो जाती हैं। पेट का भारीपन और मोटापा दूर हो जाता हैं।
सावधानी- नौलि का अभ्यास खाली पेट और धैर्य रखकर करें। बच्चो को इसका अभ्यास न करके व्यस्क उम्र में करना चाहिए। अल्सर के रोगी,आंतों में सूजन, हर्निया उच्च रक्तचाप को यह अभ्यास नहीं करना चाहिये।
5. त्राटक :-
त्राटक क्रिया ध्यान से सम्बन्धित हैं। एक स्थान पर बैठकर बिना हिले-डुले, एकटक दृष्टि से किसी वस्तु या चिन्ह को निरन्तर देखते रहना त्राटक क्रिया कहलाती हैं।
त्राटक साधना के तीन प्रकार होते हैं -
- अंतः त्राटक
- मध्य त्राटक
- बाह्य त्राटक
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