परिचय
राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता हैं क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती हैं। राजयोग को अष्टांग योग भी कहा जाता हैं। इस में महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन मिलता हैं। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करते हुए मन को एकाग्र कर उसे समाधि की अवस्था तक ले जाना हैं। साथ ही मोक्ष का मार्ग भी दिखाना हैं।
राज योग का महत्व
महर्षि पतंजलि ने सम चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया हैं। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेषों का नाश होता हैं, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता हैं और विवेकख्याति प्राप्त होती हैं। राजयोग सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करने का मार्ग प्रदर्शित करता हैं।
राज योग का उद्देश्य
महर्षि पतंजलि ने राज योग के ग्रंथ पातंजल योग सूत्र के माध्यम से निम्नलिखित उद्देश्य बताएं हैं -
राज योग के अंग- नैतिक अनुशासन ( यम ,नियम )
- शारीरिक अनुशासन ( आसन , प्राणायाम )
- मानसिक अनुशासन ( प्रत्याहार, धारणा , ध्यान )
- आध्यात्मिक मुक्ति ( समाधि से कैवल्य )
महर्षि पतंजलि ने अपने योग ग्रंथ पातंजल योग सूत्र में योग के आठ अंगों का वर्णन किया हैं जो निम्न हैं -
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
1. यम
पतंजलि का यम सामाजिक रूप से जीना सिखाता हैं। जिससे सामाजिक नैतिकता में वृद्धि होती हैं। इसके पांच भाग हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- असतेय
- ब्रह्मचर्यं
- अपरिग्रह
I. अहिंसा
मन, वचन और कर्म से किसी जीव को हानि नहीं पहुँचाना अहिंसा कहलाता हैं। अहिंसा के अंतर्गत किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं करना, किसी को अपशब्द नहीं कहना, किसी से घृणा नहीं करना और सबके साथ प्रेम और सोहार्द की भावना के साथ व्यवहार करना। ये सभी अहिंसा के अंतर्गत आते हैं। अहिंसा के अभ्यास से किसी के प्रति घृणा की भावना नष्ट होकर आपस में प्रेम का विकास होता हैं।
II. सत्य
मन, वचन और कर्म से किसी के साथ छल-कपट नहीं करना और जो जैसा हैं वैसा ही बताना सत्य कहलाता हैं। दूसरों को धोखा देने की आदत को नियंत्रित करने में सत्य हमारी मदद करता हैं। सत्य के आचरण से हमारे अंदर का सत्त्वगुण बढ़ता हैं। सात्विकता बढ़ने से मानसिक शक्तियों का विकास होता हैं। सत्य बोलने से किसी भी प्रकार का बोझ हमारे मन पर नहीं रहता हैं। जिससे शांति मिलती हैं।
III. अस्तेय
अस्तेय का अर्थ होता है चोरी नहीं करना। दूसरे का अधिकार या संपत्ति को उसके मालिक की सहमति के बिना लेने की इच्छा करना या ले लेना चोरी माना गया हैं। चोरी करने की प्रवृति की जड़ दूसरों से ईर्ष्या में निहित होती हैं। अतः ईर्ष्या और लोभ को अस्तेय के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता हैं। चोरी करने की प्रवृति व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा को भी नष्ट कर देती हैं।
IV. ब्रह्मचर्य
बिना गृहस्थ आश्रम के पुरुषों और महिलाओं को यौन आकर्षण से बचने के लिए जितना हो सके उतना संयम रखना चाहिए। साधारण गृहस्थों को भी अपनी इन्द्रियों को यथाशक्ति संयमित रूप से प्रयोग करना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पालन करने से हम सदाचारी बनते हैं। इसके विपरीत ब्रह्मचर्य का पालन न करने से व्यक्ति के मन में बुरे विचार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति अनैतिकता की ओर बढ़ता हैं।
V. अपरिग्रह
मूलभूत आवश्यकताओं से अधिक संचय न करना अपरिग्रह कहलाता हैं। अर्थात नीतियुक्त पुरुषार्थ यानि की ईमानदारी और मेहनत के द्वारा जो भी प्राप्त हो उसे प्रसन्न भाव और संतोष के साथ जीवन में अपनाना चाहिए। शांत और स्वस्थ जीवन जीने के लिए सादगी का होना बहुत जरूरी हैं। किसी की देखा देखी वस्तुओं का संग्रह करने से केवल लालच और वासना की भावना मन में आती हैं।
2. नियम
अष्टांग योग का नियम जीवन शैली को बदल कर उसे सुव्यवस्थित कर अनुशासन सिखाता हैं। जिसके पांच भाग हैं
- शौच
- संतोष
- तप
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्रणिधान
I. शौच
शौच का अर्थ है 'शुद्धि' करना जो कि दो प्रकार की बताई गई हैं शारीरिक और मानसिक। शरीर को बाहर से स्नान करके और अंदर से उचित आहार के द्वारा शुद्ध रखना शारीरिक शुद्धि कहलाता हैं। मानसिक शुद्धि शास्त्र अध्ययन ,ध्यान, भजन, सत्संग, अच्छे विचार और शास्त्रों के श्रवण आदि से होती हैं। बिना तन और मन की शुद्धि के योग के मार्ग में आगे नहीं बड़ा जा सकता हैं।
II. संतोष
सच्चे प्रयासों और मेहनत ईमानदारी से कर्म करके जो कुछ भी प्राप्त होता हैं। उसमे संतुष्ट और खुश रहना संतोष कहलाता हैं। संतोष व्यक्ति को सुख-दुःख में भी समान रूप से रहने की शक्ति प्रदान करता हैं। ताकि दुख या मुश्किल का समय आने पर भी व्यक्ति अपने ईमानदारी के रास्ते को न छोड़े और जो हैं उसमे ख़ुशी से रहे इसीलिए कहा भी गया हैं कि संतोषी व्यक्ति सदा सुखी रहता हैं।
III. तप
शारीरिक और मानसिक कष्टों को बिना किसी परेशानी के आनंद से सहन करने की शक्ति तप कहलाती हैं। तप का अर्थ हैं लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपने कर्मो को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ बिना किसी लालच और द्वेष भावना के करने का प्रयास करना। तप से तन-मन पवित्र हो जाता हैं, जिससे व्यक्ति के अंदर सत्त्वगुण बढ़ता हैं और व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शांति मिलती हैं।
IV. स्वाध्याय
स्व का अर्थ स्वयं से अर्थात अपनी आत्मा से हैं। "स्वाध्याय" का अर्थ है अपनी आत्मा का अध्ययन करना। जब हमारा मन बाहरी विषयों से आतंरिक विषयों की ओर चला जाता है तो हमें हमारी आत्मा का स्वरूप दिखाई देता है। आत्म निरीक्षण करने के लिए शास्त्रों का अध्ययन करना, समय समय पर स्वयं का निरीक्षण करना जरुरी हैं। स्वाध्याय से ही सही गलत का आंकलन संभव हैं।
V. ईश्वर प्रणिधान
ईश्वर का अर्थ हैं सगुण ब्रह्म या परमात्मा और प्रणिधान का अर्थ हैं अपने प्राण के साथ समर्पण करना। अर्थात तन और मन से स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान कहलाता हैं। हमारे कर्म चाहे कैसे भी हो हर परिस्थिति में हमें ईश्वर को कभी भी भूलना नहीं चाहिए और जीवन में हमेशा ही अच्छे कर्म करते हुए ईश्वर को इस अनमोल जीवन के लिए धन्यवाद देना चाहिए।
3. आसन
आसन को योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता हैं। जिसे महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के तीसरे अंग के रूप में माना हैं। उन्होंने इसके लिए अपने ग्रंथ योग सूत्र में एक सूत्र दिया स्थिरसुखमासनम् । अर्थात शरीर की वह स्थिति जिसमें शरीर बिना हिले-डुले स्थिर व सुखपूर्वक अवस्था में रहे वह आसन कहलाती हैं। अतः शरीर की स्थिर व सुखमय अवस्था आसन कहलाती हैं।
4. प्राणायाम
''श्वासप्रश्वासयो गतिविच्छेद: प्राणायाम''-(यो.सू. 2/49)
प्राणों का आयाम प्राणायाम हैं। अर्थात प्राण की स्वाभाविक गति श्वास-प्रश्वास को रोकना प्राणायाम हैं। महर्षि पतंजलि के अनुसार प्राणायाम के द्वारा सांसों को नियंत्रित किया जा सकता हैं। प्राणायाम के अभ्यास से हम श्वांस लेने की कला में निपुण होते हैं और प्राणायाम से फेफड़ों को मजबूती मिलती हैं।
5. प्रत्याहार
शरीर की समस्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को अपने वश में करना प्रत्याहार हैं। अर्थात् इन्द्रियों को उनके अपने-अपने विषयों के साथ संपर्क न करके उन इंद्रियों को बुद्धि के साथ समन्वय करके उन्हें मोक्ष प्राप्ति की दिशा की ओर ले जाना प्रत्याहार कहलाता हैं। इस अवस्था में मन शांत होकर आत्मचिंतन में लग जाता हैं। इसके माध्यम से हम अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण कर सकते हैं।
6. धारणा
चित्त की वृत्ति को किसी विशेष स्थान पर बांधना धारणा कहलाती हैं। स्थूल व सूक्ष्म किसी भी विषय में अपने मन को लगाना धारणा हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि के उचित अभ्यास के बाद यह कार्य सरलता से हो जाता हैं। प्राणायाम और प्रत्याहार से मन को धारणा की ओर लगाया जा सकता हैं। धारणा हमारे मन को एकाग्र करती हैं और बुद्धि का विकास भी करती हैं।
7. ध्यान
धारणा में चित्त जिस वृति में लगा हो और लगातार उसी में बहता चला जाए ध्यान कहलाता हैं। ध्यान हमें स्वयं से मिलाने की प्रक्रिया हैं। ध्यान हमें बाहरी जगत से आंतरिक जगत की ओर लेकर जाता हैं। ध्यान का अर्थ हैं किसी विशेष स्थान पर विचारों और संवेदनाओं को रोकना और उसी पर केंद्रित हो जाना ध्यान हैं। ध्यान के माध्यम से हम समाधि की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
8. समाधि
ध्यान में ही आगे की यात्रा में चले जाना और वापस अपने चित्त की वृत्ति में न लौटना समाधि हैं अर्थात वह अवस्था जिसमें व्यक्ति को स्वयं का भी ध्यान न रहे और वह अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर दे समाधि कहलाती हैं। श्रीमद भागवत गीता में ऐसे व्यक्ति को ही 'स्थितप्रज्ञ' की संज्ञा दी गई हैं। यही वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करने की दिशा में प्रयास करना शुरू कर देता हैं।
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