Saturday, February 8, 2025

Unit II - Chapter 7- भ्रामरी प्राणायाम

परिचय 

भ्रामरी शब्द की उत्पत्ति ‘भ्रमर’ से हुई है जिसका अर्थ होता हैं भँवरा या मधुमक्खी जैसी गुनगुनाने वाली ध्वनि। इस प्राणायाम का अभ्यास करते समय नाक से एक गुनगुनाने वाली ध्वनि उत्पन्न होती हैं, यह ध्वनि एक गुनगुनाने वाले भंवरे या मधुमक्खी की गूंज से मिलती-जुलती होती हैं, इसलिए इसे भ्रामरी प्राणायाम कहा जाता हैं। यह निराशा और चिंता से मुक्त करने के लिए एक उत्तम प्राणायाम हैं।

भ्रामरी प्राणायाम की विधि

इस प्राणायाम में सबसे पहले पद्मासन या किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठें। आंखों को बंद करें। अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखे और अपनी तर्जनी उंगली को कानों पर रखकर उन्हें बंद करे। अब अपनी नाक से सांस को बाहर छोड़ते हुए भंवरे की तरह गुंजन करें। गुंजन धीरे-धीरे करते हुए तेजी के साथ करे। इस प्राणायाम में भंवरे के गुंजन की जगह ॐ का उच्चारण भी कर सकते हैं।

भ्रामरी प्राणायाम के लाभ

  • मस्तिष्क को प्रसन्न एवं शांत रखता हैं।
  • तनाव एवं घबराहट से राहत दिलाता हैं।
  • क्रोध को कम करने में अहम भूमिका निभाता हैं।
  • चिंता को दूर करने में यह महत्वपूर्ण हैं।
  • डिप्रेशन के लिए बेहद जरूरी प्राणायाम हैं।
  • मन को शांत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
भ्रामरी प्राणायाम की सावधानियां
  • प्राणायाम करने का समय धीरे-धीरे बढ़ाये।
  • गुंजन करते समय मुंह को बंद रखना चाहिए।
  • चेहरे पर दबाव नहीं डालना चाहिए।
  • कान में संक्रमण होने पर नहीं करना चाहिए।
  • प्राणायाम के समय मुंह बंद ही रखे ।
  • गुंजन को स्थिर और सहज रखे।

Friday, February 7, 2025

Unit II - Chapter 6- शीतली प्राणायाम

परिचय

शीतली का अर्थ हैं शीतलता। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हैं, यह प्राणायाम पूरे शरीर को शीतलता प्रदान करता हैं। इसलिए इस प्राणायाम को शीतली प्राणायाम कहा जाता हैं। यह प्राणायाम विशेष तौर पर शरीर के तापमान को कम करने में सहायता प्रदान करता हैं। इस प्राणायाम के अभ्यास से न केवल भौतिक शरीर को ठंडक मिलती हैं बल्कि यह मस्तिष्क को भी शांत रखने का कार्य करता है।

शीतली प्राणायाम की विधि

इस प्राणायाम के लिए सबसे पहले पद्मासन या किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएं। आंखों को कोमलता से बंद करें। अब अपने हाथों को ज्ञानमुद्रा में घुटनों पर रखें और जिह्वा को दोनों किनारों से मोड़कर नली के आकार का बना लें। नली के आकार की जिह्वा से श्वास अंदर खींचकर फेफड़ों को अपनी पूरी क्षमता के साथ भर लें और मुंह बंद कर लें। तथा नासिका से धीरे धीरे सांस को छोड़े।

शीतली प्राणायाम के लाभ

  • तनाव को कम करने में सहायता प्रदान करता हैं।
  • चिंता को दूर करने में मदद करता हैं।
  • क्रोध पर नियंत्रण करने में सहायक हैं।
  • भूख और प्यास को नियंत्रित करता हैं।
  • रक्तचाप को कम करने में सहायता प्रदान करता हैं।
  • शरीर को शीतलता प्रदान करता हैं।
शीतली प्राणायाम की सावधानियां 
  • एक शांत जगह का चुनाव करना चाहिए।
  • प्राणायाम करते समय रीढ़ की हड्डी को सीधा रखना चाहिए।
  • शीतली प्राणायाम केवल गर्मी के मौसम करना चाहिए।
  • अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, जुखाम, खांसी आदि में नहीं करना चाहिए।
  • जो जीभ को मोड़ नहीं सकते उनको शीतली की जगह सीत्कारी प्राणायाम करना चाहिए।

Thursday, February 6, 2025

Unit II - Chapter 5- अनुलोम विलोम प्राणायाम

परिचय

नाड़ी का अर्थ होता हैं। वह पथ जिससे प्राण शक्ति शरीर में भ्रमण करती हैं और शोधन का अर्थ हैं शुद्धि। अर्थात नाड़ी शोधन प्राणायाम से नाड़ियों की शुद्धि होती हैं। अनुलोम विलोम प्राणायाम या नाड़ी शोधन प्राणायाम एक ऐसी प्रक्रिया हैं जो हमारे शरीर की समस्त नाड़ियों को साफ़ कर ठीक प्रकार से संचालित करने में मदद करती हैं और इस प्रक्रिया से हमारा मन शांत होता हैं।

अनुलोम विलोम की विधि

शांत चित्त होकर पद्मासन, सुखासन, वज्रासन या जिस भी ध्यानात्मक आसन में स्थिर होकर बैठ सकें उस आसन में बैठ जाएं। मेरूदण्ड व सिर को सीधा रखें। दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासिका छिद्र को बन्द करें। बायें नासिका से पूरक (साँस लेना) करें और बाएं नासिका को उंगुली से बंद कर दाएं से रेचक (साँस छोड़ना ) करें फिर दाएं से पूरक और बाएं से रेचक करें। सांस की गति धीमी रखे।

अनुलोम विलोम के लाभ

  • यह प्राणायाम मन को शांत और केंद्रित करता हैं।
  • श्वसन प्रणाली की समस्याओं से मुक्त करता हैं।
  • मानसिक तनाव को दूर करता हैं।
  • मस्तिष्क की बुद्धि क्षमता का विकास करता हैं।
  • नाड़ियों की शुद्धि कर प्राण ऊर्जा का प्रवाह करता हैं।
  • शरीर का तापमान बनाए रखने में मदद करता हैं।
  • ध्यान के अभ्यास में यह प्राणायाम लाभप्रद हैं।
अनुलोम विलोम की सावधानियां

नाड़ीशोधन का अभ्‍यास पहली बार कर रहे हैं तो सांस लेने और छोड़ने का समय सामान्‍य होना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि जितना समय हम सांस लेने में लगाते हैं, उससे दोगुना समय इसे छोड़ने में भी लगाना चाहिए। सांस धीमी, स्थिर और निरंतर होनी चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्‍यान रखें कि शुद्ध और स्वच्छ वातावरण में योग प्रशिक्षक के निर्देशन में अभ्यास करें।

Tuesday, February 4, 2025

Unit II- Chapter 4.1- बंध की अवधारणा

परिचय

बंध का शाब्दिक अर्थ होता हैं बांधना अर्थात किसी अंग विशेष पर उनकी क्रियाओं को रोकना या संकुचित करना। बंध एक प्रकार की आंतरिक शारीरिक प्रक्रिया हैं जिसके द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों तथा नाड़ियो को नियंत्रित किया जाता हैं। बंध के माध्यम से आंतरिक अंगों की मालिश की जाती हैं जिसके कारण उन अंगों की कार्यक्षमता बढ़ती हैं और शरीर का स्वास्थ्य बेहतर होता हैं।

बंध का अर्थ और परिभाषा

बंध का अर्थ होता हैं बांधना, रोकना, संकुचित करना, बंद करना या नियंत्रित करना। वह क्रिया जिसके द्वारा किसी अंग विशेष को बांधकर उस पर आने जाने वाली संवेदनाओ को रोक कर लक्ष्य विशेष की ओर भेजा जाता हैं वह क्रिया बंध कहलाती हैं। बंध के द्वारा आंतरिक अंगों की शुद्धि की जाती हैं। साथ ही बंध के प्रयोग से प्राण को भी नियंत्रित किया जा सकता हैं। 

बंध का महत्व

बंध लगाने पर शरीर के कुछ निश्चित अंगो को बड़ी सतर्कता से संकुचित किया जाता हैं अथवा बांधा जाता हैं। जिसके कारण शरीर पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते हैं। विभिन्न अंगो, मांसपेशियों और नाड़ियो की मालिश होने से वे क्रियाशील होते हैं और इन पर नियंत्रण स्थापित होता हैं।बंध के अभ्यास से प्राण शक्ति की सूक्ष्म धाराओं को एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर भेजा जा सकता हैं।

बंध का उद्देश्य

बन्ध का उद्देश्य साधक की बाह्यवृत्ति को समाप्त कर अन्तःवृत्ति को जगाना हैं अर्थात बन्ध हमें भौतिक जगत से अंतर्जगत की ओर ले जाता हैं। जिससे हम संसार से विमुख होकर साधना पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं। बंध के अभ्यास से साधक अपने लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सजग हो जाता हैं। बन्धों का अभ्यास साधक को एकाग्रता प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता हैं।

बंध के प्रकार

बंध चार प्रकार के होते हैं -

  • जालंधर बंध
  • उड्डियान बंध
  • मूल बंध
  • महा बंध
जालंधर बंध

विधि- किसी भी ध्यान के आसन में बैठकर गले को संकुचित कर सांस को अन्दर/ बाहर रोककर और ठुड्डी को गले में उपस्थित गड्डे में लगाने की क्रिया जालंधर-बंध हैं।
लाभ- इसके अभ्यास से गले से संबंधित रोगों को दूर किया जा सकता हैं।
सावधानी- सर्वाइकल व हृदय संबंधित बीमारी होने पर इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।

उड्डियान बंध

विधि- किसी भी ध्यान के आसन में बैठकर पेट में स्थित आँतों को पीठ की ओर (उपर) खींचने की प्रक्रिया उड्डियान बंध कहलाती हैं।
लाभ- इसके अभ्यास से पेट संबंधी रोगों को दूर किया जा सकता हैं।
सावधानी- आंत, हर्निया और उच्च रक्तचाप संबंधित बीमारी होने पर इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।

मूल बंध

विधि- किसी भी ध्यान करने वाले आसन में बैठकर गुदा द्वार की मांसपेशियों को ऊपर की ओर संकुचित करने की प्रक्रिया मूल बंध कहलाती हैं।
लाभ- इसके अभ्यास से गुदा और जनन अंग संबंधी रोगों को दूर किया जा सकता हैं।
सावधानी- महिलाओं को ऋतु चक्र (माहवारी )के समय इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।

महा बंध

विधि- किसी भी ध्यान करने वाले आसन में बैठकर जब उपरोक्त तीनों बंधों को एक साथ लगाया जाता हैं तो यह प्रक्रिया महा बंध कहलाती हैं।
लाभ- इसके अभ्यास से तीनों बंधों के लाभों को एक साथ प्राप्त किया जा सकता हैं।
सावधानी- जब तक तीनों बंधों में अभ्यस्त न हो जाए तब तक इस बंध का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

Monday, February 3, 2025

Unit II- Chapter 3 - पूरक, कुंभक और रेचक

परिचय

सामान्य व्यक्ति जीवन भर सांस को लेना और छोड़ने का ही कार्य लगातार करता रहता हैं। किन्तु योग के अंतर्गत प्राणायाम करते समय प्रमुख रूप से तीन क्रियाएं की जाती हैं-सांस को लेना, सांस को रोकना और सांस को छोड़ना। इन क्रियाओं को क्रमशः पूरक, कुम्भक और रेचक कहा जाता हैं। हठ योगीयों ने अपने ग्रंथों में इन्हें अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति भी कहा हैं।

पूरक

जिस अवस्था में हम अपनी नासिका से सांस को अंदर की ओर लेते है उसे पूरक कहा जाता हैं। पूरक हमेशा लम्बा और धीमा करना चाहिए ताकि हम अपनी आने वाली श्वास को ठीक प्रकार से महसूस कर सके। पूरक करते समय हमें अपना पूरा ध्यान केवल अपनी आने वाली श्वास पर रखना चाहिए। जितना अधिक पूरक हम करेगें उतनी ही अधिक मात्रा में ऑक्सीजन हमारे शरीर में जाएगी।

कुंभक

जिस अवस्था में हम ली गई सांस को अंदर ही रोक दे या बाहर की ओर छोड़ी गई सांस को बाहर रोक कर लेने की कोशिश न करे उसे ही कुंभक कहा जाता हैं। कुंभक हमेशा अपनी क्षमता अनुसार ही करना चाहिए और किसी कुशल योग प्रशिक्षक के मार्गदर्शन में ही करे। प्राणायाम के एक सही अनुपात के अनुसार कुंभक हमेशा पूरक अर्थात ली गई सांस का चार गुना होता हैं।

कुंभक के प्रकार

योगियों ने कुंभक के दो प्रकार बताए हैं -

अंत: कुम्भक:-

नासिका द्वारा ली गई श्वास को क्षमतानुसार अंदर रोकने की क्रिया को अंत: कुम्भक कहते हैं।

बाह्य कुम्भक:-

नासिका द्वारा छोड़ी गई श्वास को बाहर छोड़कर पुन: नहीं लेकर कुछ देर रुकने की क्रिया को बाह्य कुंभक कहते हैं।

रेचक

जिस अवस्था में हम अपनी नासिका द्वारा ली गई सांस को बाहर की ओर छोड़ते हैं उसे रेचक कहा जाता हैं। रेचक हमेशा लम्बा और धीमा करना चाहिए साथ ही पूरक का दुगुना होना चाहिए ताकि अधिक से अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड अपनी श्वास के माध्यम से शरीर से बाहर कर सके। रेचक करते समय हमें अपना पूरा ध्यान केवल अपनी बाहर जाने वाली श्वास पर ही रखना चाहिए।

पूरक, कुम्भक और रेचक में संबंध

पूरक का मतलब होता है सांस लेना, कुंभक का मतलब होता हैं सांस को रोकना और रेचक का मतलब होता हैं। सांस को छोड़ना। योग ग्रंथों के अनुसार प्राणायाम के दौरान पूरक, कुंभक और रेचक का एक सही अनुपात 1:4:2 होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि अगर आप 10 सेकंड तक सांस लेते हैं तो 40 सेकंड तक रोक कर रखे और 20 सेकंड तक सांस को छोड़ने का प्रयास करे।

पूरक, कुम्भक और रेचक के लाभ

  • मानसिक और शारीरिक रुप से मजूबत करता हैं।
  • फेफड़ो की कार्य क्षमता को बढाता हैं।
  • शरीर में ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देता हैं।
  • नकारात्मक से सकारात्मक चिंतन की ओर बढ़ते हैं।
  • शरीर का रक्तचाप संतुलित करता हैं।
  • शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता हैं।
  • भूख-प्यास के नियंत्रण में मदद करता हैं।
पूरक, कुम्भक और रेचक में सावधानियां
  • प्रारंभिक अवस्था में योग विशेषज्ञ की सलाह लें।
  • सांस संबंधित बीमारियों में कुम्भक न लगाएं।
  • अभ्यास के प्रारंभ में भी कुंभक नहीं करना चाहिए।
  • सर्वप्रथम पूरक और रेचक का सही अभ्यास करे।
  • गंभीर बीमारी में चिकित्सक की सलाह अवश्य ले।
  • अभ्यस्त हो जाने पर सही अनुपात का पालन करे।

Sunday, February 2, 2025

Unit II- Chapter 2 - यौगिक गहरी श्वास

परिचय

यौगिक गहरी श्वास से प्राण शक्ति बढ़ने लगती हैं। शरीर के अन्दर की गंदगी बाहर निकलती हैं और योग अभ्यासी एक अलग आनन्द को प्राप्त करने लगता हैं। यौगिक गहरी श्वास फेफड़ों को मजबूत बनाने की क्रिया हैं जिसे करने से फेफड़े अधिक लचीले बनते हैं और शरीर के अंदर अधिक मात्रा में प्राण वायु प्रवेश करती हैं। जिससे प्राणों की ताकत बढ़ती हैं और बुद्धि क्रियाशील होती हैं।

यौगिक गहरी श्वास लेने की विधि

यौगिक गहरी श्वास के अभ्यास के लिए समतल जमीन पर एक मैट (दरी, चटाई या चादर) बिछा लें। उस पर आराम से सुखासन में बैठ जाएं। नासिका से धीरे-धीरे सांस लें और छोड़ें। गहरी सांस लेने के लिए मन में गिनती गिन सकते हैं। चाहें तो ओम का उच्चारण भी कर सकते हैं। या फिर केवल साँस पर ध्यान लगाकर भी यौगिक श्वसन कर सकते हैं।

यौगिक गहरी श्वास के लाभ

  • यौगिक गहरी सांस से एकाग्रता बढ़ जाती हैं।
  • यौगिक गहरी सांस लेने से फेफड़े मजबूत होते हैं।
  • अंदरूनी अंगों तक शुद्ध वायु प्रवेश करती हैं।
  • यौगिक गहरी सांस से पेट निरोग बनता हैं।
  • इस प्रक्रिया से पाचन तंत्र अच्छे से कार्य करता हैं।
  • यौगिक गहरी सांस से पेट के रोग दूर हो जाते हैं।
  • यौगिक गहरी सांस लेने से रक्त भी शुद्ध होता हैं।
यौगिक गहरी श्वास की सावधानियाँ
  • गहरी सांस हमेशा शांत माहौल में ही लेना चाहिए।
  • गहरी सांस लेते हुए हमेशा अपनी आंखें बंद रखें।
  • धीरे-धीरे इसके अभ्यास का समय बढ़ाना चाहिए।
  • सांस लेते और छोड़ते समय ज्यादा जोर न लगाएं।
  • सांस धीरे-धीरे लें और धीरे-धीरे ही छोड़ें।
  • सांस लेने और छोड़ने का समय बराबर होना चाहिए।
  • श्वसन के समय सांसो की आवाज नहीं आना चाहिए।
यौगिक गहरी श्वास का निष्कर्ष

यौगिक गहरी सांस जिसे Deep Breathing भी कहा जाता हैं। इस प्रकार की सांस लेने के अनेक लाभ मिलते हैं। यदि कोई व्यक्ति यौगिक गहरी श्वास लेने की क्रिया ठीक प्रकार से करने लग जाएं तो इसके माध्यम से वह अपना जीवन भी बदल सकता हैं। और एक बेहतर जीवन को प्राप्त कर सकता हैं। इसलिए व्यक्ति को दिनचर्या में यौगिक गहरी श्वास का अभ्यास करते रहना चाहिए ।

Saturday, February 1, 2025

Unit II- Chapter 1 - अनुभागीय श्वास

परिचय

अनुभागीय श्वास फेफड़ों की कार्यक्षमता को बढ़ाने का कार्य करती हैं। इसके माध्यम से सामान्य श्वसन वाले व्यक्ति भी बिना किसी अत्यधिक परिश्रम के अपने फेफड़ो की कार्यक्षमता को बढ़ा सकते हैं। ठीक इसी प्रकार से कम श्वसन लेने वाले व्यक्ति या श्वसन संबंधित बीमारियों से ग्रस्त व्यक्ति भी केवल थोड़े से प्रयास से अपने फेफड़ों की कार्य क्षमता को कई गुना बढ़ा सकते हैं।

अनुभागीय श्वास की विधि

सबसे पहले लंबी और गहरी श्वास लेते हुए वायु को पेट में भरते हैं, फिर सीने में भरते हैं और अंत में हंसलियों या कंधे की मांसपेशियों, अस्थियों में भरते हैं। जब श्वास छोड़ते हैं उस समय सबसे पहले कंधे की मांसपेशियों, अस्थियों से वायु निकालते हैं फिर सीने या पसलियों में भरी हुई वायु को और अंत में पेट या उदर में भरी वायु को बाहर निकाला जाता हैं। इस तरह से ली गई सम्पूर्ण वायु को निकालते हैं।

अनुभागीय श्वास के प्रकार

अनुभागीय श्वास को तीन भागों में बांट सकते हैं-

  • पेट या उदर श्वास ( डायाफ्रमैटिक ब्रीदिंग )
  • वक्षस्थलीय श्वास ( थोरैसिक ब्रीदिंग )
  • हंसली श्वास ( क्लैविक्युलर ब्रीदिंग )
पेट या उदर श्वसन

जैसा कि नाम से पता चलता हैं कि पेट की दीवार की माँसपेशियों का उपयोग करते हुए पेट या उदर श्वास ली जाती हैं। इस प्रकार की श्वास में डायाफ्राम का उपयोग होता हैं। डायाफ्राम हमारे पेट और सीने को बांटने वाली एक माँसपेशी हैं। यह माँसपेशी पेट व सीने को अलग-अलग करती हैं। यह एक पतले पर्दे के समान होती है। जो कि सांस लेने पर नीचे की ओर जाती हैं।

वक्षस्थलीय श्वास

वक्षस्थलीय श्वास में पूर्णतः हृदय की पसिलयों को आधार बनाकर श्वसन क्रिया की जाती हैं। पसलियों के पिंजर को सिकोड़कर या फैलाकर श्वसन किया जाता हैं। वक्षस्थलीय श्वास लेते समय पसलियों के माध्यम से श्वसन को लंबा और गहरा किया जाता हैं। इस श्वसन प्रक्रिया से हम पर्याप्त श्वास लेने में सफल होते हैं। और जिसके कारण फेफड़ो की कार्य क्षमता बढ़ती हैं।

हंसली श्वास

इस प्रकार की श्वसन क्रिया में मुख्य रूप से कंधों और कॉलर बोन (क्लैविक्स) को ऊपर उठाकर श्वास ली जाती हैं और श्वास छोड़ने के दौरान पेट के साथ-साथ छाती सिकोड़कर वायु को छाती में खींचा जाता हैं। इस श्वसन में हवा की अधिकतम मात्रा अल्प समय के लिए खींची जाती हैं। यह श्वसन क्रिया निरंतर अभ्यास के बाद आदत में आ जाती हैं। जिससे हम पूर्ण श्वांस का लाभ ले सकते हैं।

श्वास लेने का अभ्यास

श्वास लेने का अभ्यास कैसे करे इसके लिए शुरूआत में श्वास लेने का सही तरीका याद नहीं रहता हैं तो बेहतर हैं कि अलार्म लगाकर हर आधे घंटे में अपनी श्वास पर गौर करें और 3-4 मिनट के लिए सही तरीके से श्वास लेने का अभ्यास भी करें। अगर आप 3-4 महीने तक लगातार इस श्वसन प्रक्रिया का अभ्यास कर पाते हैं तो सही तरीके से श्वास लेना आपकी आदत में शामिल हो जाएगा।

श्वास की संख्या

ऐसा कोई नियम तो नहीं है कि हमें एक मिनट के अंदर कितनी बार श्वास लेना चाहिए, लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो एक श्वास 4 पल्स रेट के बराबर होती है। यानी किसी भी सामान्य व्यक्ति का पल्स रेट एक मिनट में करीब 72 होता हैं। ऐसे में उसकी श्वास एक मिनट में 15-18 हो सकती हैं। यह श्वास की संख्या कभी कम तो कभी ज्यादा भी हो सकती हैं।

धीमी और गहरी सांस के लाभ
  • हृदय और फेफड़ों की गतिविधियाँ बेहतर होती हैं।
  • ब्लड प्रेशर को सामान्य रखने में मदद मिलती हैं।
  • शरीर को अधिक ऑक्सीजन मिलती हैं।
  • शरीर के उर्जा का स्तर बेहतर होता हैं।
  • मन शांत होकर प्रसन्न रहता हैं।
  • गुस्सा और तनाव कम होता हैं।
  • मन पर नियंत्रण होकर एकाग्रता बढ़ती हैं।
तेज श्वास के नुकसान
  • शरीर में ऑक्सीजन का स्तर कम हो जाना।
  • तनाव, पैनिक अटैक जैसी बीमारियों की समस्या।
  • ह्रदय की सामान्य गति का तालमेल बिगड़ना।
  • साँस लेने में रुकावट और परेशानी का अनुभव करना।
  • सामान्य रक्तचाप का स्तर अधिक हो जाना।
  • फेफड़ो की गतिविधि का ठीक से कार्य न करना ।
  • कार्बन डाई आक्साइड की कम मात्रा बाहर निकलना ।

All Mock Test Answer

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